Wednesday, July 31, 2013

"मैं",कुछ भी नहीँ,..,

एक भी लम्हा मेरा, जाता ऩहीँ, तेरे बगैर,
बस यही मुश्क़िल है मेरी.. और मुश्क़िल.. कुछ भी ऩहीँ

सीने में है इक समंदर, और लब खामोश है,
बोलने को दरमियाँ... अब बाकी रहा... कुछ भी ऩहीँ,

भूल जाता हूँ मैं अक्सर, अपनी ही पहचान को
बस तू ही तू याद है, और याद अब, कुछ भी नही..,

मुझको बस मालूम है की...मैं तो तेरा हो गया,
फिर मैं किस किस का हुआ, मुझको पता कुछ भी ऩहीँ
...

अर्श में "तू" , फर्श में "तू" , और आईने में "तू" ,
"तू" ही "तू" मुझ में समाया, मुझ में मैं,कुछ भी नहीँ,..,

रात दिन माँगूँ  दुआएं बस तेरे ही वास्ते,
जो भी है.. अब "तू" ही है...और "मैं" .... कुछ भी नही

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